उत्तराखंड : गायब हो गई पहाड़ की खास ज्वंगड़ी, हर घर की रौनक होती थी ये

एक्सक्लूसिव

उत्तराखंड अपनी परंपराओं और समृद्ध सांस्कृति विरासत के लिए जाना जाता है। राज्य की संस्कृति और परंपराओं पर देश के साथ दुनिया के भी कई साहित्यकारों, इतिहासकारों से लेकर जानकारों ने राज्य की समृद्ध सांस्कृति परंपराओं के बारे में लिखा है। ऐसी ही एक परंपरा गढ़वाल और कुमाऊं में होती थी, लेकिन समय के साथ-साथ जैसे-जैसे में वक्त बदलाता गया, हमारी परंपराएं भी बदलती चली गईं।

ऐसी ही एक परंपरा ज्वंगड़ी थी

ऐसी ही एक परंपरा ज्वंगड़ी थी। यह गढ़वाल खासकर चमोली जिले में अधिक प्रचलित थी। यह ऐसी परंपरा थी, जिसमें नवजात बच्चे को पैदा होने के बाद एक साल की उम्र पूरा करने तक इसी ज्वंगड़ी में रखा जाता था। ज्वंगड़ी एक खास तरह का पालना जैसा होता था। तब ये ज्वंगड़ी हर घर में मिल जाती थी, लेकिन बदलते वक्त के साथ ना तो ज्वंगड़ी बनाने वाली कारीगर बचे और ना ही गांव के आसपास ज्वंगड़ी बनाने के लिए रिंगाल बची है।

झूलों और पालनों को शान मान रहे हैं

हालांकि, अब लोग आधुनिक झूलों और पालनों को अपनी शान मान रहे हैं, लेकिन जो लोग आज भी परंपरा को मान रहे हैं, उनके लिए इसे हासिल करना मुश्किल है। आलम यह है कि लोगों को अब ज्वंगड़ी के लिए एक गांव से दूसरे गावों में जाना पड़ता है। स्थिति इतनी खराब हो गई है कि एक ही ज्वंगड़ी कई-कई गांवों में ले जाई जाती है।

बच्चे का जन्म होने वाला है

ज्वंगड़ी के किसी घर में आने के मायने यह भी होते थे कि अब उस घर में किसी बच्चे का जन्म होने वाला है। ज्वंगड़ी का खास महत्व यह भी होता था कि यह गांव की महिलाओं को जोड़ने का काम करती थी। यह परंपरा सामूहिकता की भी प्रतीक रही है। ज्वंगड़ी के घर में आने के बाद गांव की बुजुर्ग महिलाएं मिलकर गर्भवती महिला का ख्याल रखते थे।

पौष्टिक आहार लाते थे

गांव की महिलाएं तब नवजात बच्चे के लिए कपड़े बनाने से लेकर प्रसव के बाद महिला के लिए पौष्टिक आहार लाते थे। बच्चे के लिए खिलौने और अन्य जरूरी सामान भी सामुहिकता से उपलब्ध हो जाता था। लेकिन, वक्त के साथ अब ये ज्वंगड़ी लगभग विलुप्त हो चुकी है। ज्वंगड़ी घर में नवजात बच्चे के आने का संकेत होती थी।

रिंगाल से बुनकर बनाई जाती थी

ज्वंगड़ी रिंगाल से बुनकर बनाई जाती थी। इसमें नीचे पुवाल रखी जाती थी। उसकी खास बात यह है कि पुवाल काफी गर्म होती है। ये नवजात बच्चे को ठंड लगने से बचाती थी। इसके पीछे की ओर दरांती भी लगाई जाती थी। पहाड़ों में बच्चे को बुरी नजर से बचाने के लिए उसके सिरहाने पर हथियार रखने की परंपरा आज भी अधिकांश जगहों पर देखने को मिल जाती है।

परंपराओं और संस्कृति को भी तबाह कर रहे हैं

बड़ी बात यह है कि हम आधुनिक तो हो रहे हैं, लेकिन आधुनिकता के नाम अपनी परंपराओं और संस्कृति को भी तबाह कर रहे हैं। माॅर्डन होने के नाम पर अपनी समृद्ध विरास को भूल रहे हैं। उन परंपराओं को विसरा रहे हैं, जिन परंपराओं ने हमें जीना सिखाया और दुनिया में खास बनाया। शशि भूषण मैठाणी का कहना है कि आधुनिक होना तो ठीक है, लेकिन उसके नाम पर परंपराओं और संस्कृति को नहीं भूलना चाहिए।

-Pradeep Rawat (रवांल्टा)

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posted on : July 10, 2021 5:10 pm
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