कोरोना काल का सबसे चर्चित लेख…कोरोना काल में प्यारे मेहमान: बसंता

इन दिनों सुबह-सुबह बुलबुल और कोयल के मधुर गीत सुन कर पास के ही घने पेड़ के रैन बसेरे में बसंता भी जाग उठता है। उनके प्रेम गीतों से शायद प्रिया की याद में उसका भी मन मचल उठता होगा। तभी तो पांच बजते न बजते अपनी तेज आवाज में वह भी टेर लगा देता है- कु र्र र्र र्र….कुटरु कुटरु कुटरु! बिना थके लगातार, बार-बार, प्रेम के इस मौसम में, इस आस में कि सुनेगी, प्रिया सुनेगी मेरी टेर।

और, सुनती है वह। कुछ देर कुर्रर्रर्र…कुटरु कुटरु कुटरु कुटरु! की टेर सुनने के बाद किसी और पेड़ से वह भी उसी भाषा में जवाब देती है- कुटरु कुटरु कुटरु! हम दोपाए मानव भला क्या जानें कि अपने प्रेम गीत में वे क्या कह रहे हैं। खग ही जाने खग की भाषा! हमें तो बस पक्षी विज्ञानियों ने इतना ही बताया है कि यह भूरे सिर वाला बड़ा बसंता यानी ब्राउन हेडेड बार्बेट है और मार्च से अगस्त तक इसकी प्रजनन ऋतु होती है।


हम मनुष्यों के लिए तो हर ऋतु प्यार की ऋतु ठहरी। वरिष्ठ साहित्यकार विश्वनाथ त्रिपाठी जी ने ‘कथादेश’ मासिक (मई 2009) में ‘पद्मावत’ में चंदबरदाई की ये पंक्तियां क्या खूब याद दिलाई थीं कि:
षत ऋतु वारह मास गए फिर आयो रू बसंत
सो ऋतु चंद बताऊ मंहि तिया ना भावै कंत

यानी, छह ऋतुएं बारह मास बीत गए, फिर वसंत आ गया। चंद मुझे वह ऋतु बताओ जिसमें औरत को आदमी अच्छा नहीं लगता। बिहाने-बिहाने बसंता गा रहा है। और, मैं याद कर रहा हूं कि वर्षों से इसकी यह आवाज सुनने के बावजूद मैं इसे देख कब पाया? कहा जाता है कि बसंता की जितनी आवाज़ सुनाई देती है, उतनी वह दिखाई नहीं देती। बहरहाल, मुझसे मिलने तो यह प्यारी चिड़िया कई साल पहले खुद चली आई थी। 16 मार्च 2010 को यह सामने सप्तपर्णी के पेड़ की चोटी पर बैठी थी। बसंता ने मुझे देखा, मैंने बसंता को देखा। मैना से थोड़ा बड़ा, पीली-नारंगी, मोटी, मजबूत चोंच। सिर से लेकर आधे सीने तक और आधी पीठ भी भूरे रंग की। उस पर सफेद धारियां। पेट का हिस्सा और पंख हरे। इतने हरे कि हरी-भरी पत्तियों के बीच तो पहचानना मुश्किल हो जाए।

सोचता रहा मैं कि बसंता यहां क्यों आया होगा, सीमेंट-कंक्रीट के इस जंगल में? इन ऊंची इमारतों में रहने वाली, बेरुखी दिखाती हमारी आदम जाति से तो उसका क्या लगाव होगा? लेकिन, बरगद, आम, शहतूत और दूसरे पेड़-पौधों से लगाव हो सकता है। पास ही पीर की मजार पर विशाल पीपल खड़ा है। वहां जरूर दूसरी चिड़ियों के साथ यह भी रसीले फलों की दावत में शामिल होता होगा। गेट पर बरगद का पेड़ भी खड़ा है। बगल में शहतूत है। इन पेड़ों से भी इसकी दोस्ती होगी। इनमें इसे शरण भी मिलती है और भोजन भी। खुशी हुई कि फुरसत में वहां से आकर बसंता हमारे आसपास भी अपने प्यार के दो बोल बोल जाता है- कुटरु….कुटरु! तभी से यह आ रहा है, हर साल। दो साल पहले अचानक कुटरु… कुटरु… कुटरु की आवाज़ और भी पास से सुनी तो हमने देखा, एक अकेला बसंता हमारे पड़ोसी आसिफ की कांच की खिड़की पर भीतर झांकते हुए लगातार कुटरु…कुटरु की टेर भी लगा रहा था।

मन विकल होकर भीग गया। सोचता रहा-किसे पुकार रहा है यह? बाद में रहस्य समझ में आ गया। आसिफ की बालकनी पर दर्पण जैसे शीशे लगे हैं। भीतर से बाहर साफ दिखाई देता है लेकिन बाहर से देखने पर अपनी ही शक्ल दिखाई देती है। बसंता सोचता होगा उसका कोई साथी भीतर बंद हो गया है। कौन साथी? मन बार-बार पूछता था- यह मां बसंता है या पिता बसंता? तो दूसरा कहां है? वह कई दिनों तक टेर लगाता रहा। मेरे स्टडी रूम की खिड़की का भी चक्कर लगा गया। धीरे-धीरे खिड़की पर उसका आना बंद हो गया। हालांकि वह पास के ही एक घने पेड़ पर रैन बसेरे में रहने लगा। बाद में हमने उसे वहीं से निकल कर बच्चे के साथ आसपास के पेड़ों पर बैठते-उड़ते देखा। ज्यों ही उन्हें पता लगता कि कोई आसपास है, तो वे पत्तियों की ओट में छिप जाते थे।
इन दिनों एक और सुंदर मेहमान आ रहा है- काॅपरस्मिथ बार्बेट यानी ठठेरा या छोटा बसंता। यह एक-एक या दो-दो सेकेंड में टुक…टुक…टुक…टुक की तेज आवाज देता रहता है। दूर से सुनने पर लगता है जैसे कोई ठठेरा अपनी हथौड़ी से तांबे के बर्तन बना रहा हो। यह बहुत सुंदर दिखता है। क्योंकि चटक लाल, हरे और पीले रंग से सजा हुआ है। सीना और माथा चटक लाल है तो गला पीला और पंख हरे। पंखों से नीचे पूरा शरीर हरे रंग की टूटी धारियों से सजा हुआ। इसे भी फल और विशेष रूप से बरगद तथा पीपल की बेरियां बहुत पसंद हैं। अगर पंखदार दीमकें हवा में उड़ान भर रही हों तो यह उनका भी शिकार कर लेता है। जनवरी से जून तक इन का प्यार का मौसम है और इनकी प्यार की भाषा वही है – टुक…टुक…टुक…टुक!

प्यार तो ठीक लेकिन परिवार कहां बढ़ाएंगे? इसलिए ये पक्षी सहजन या किसी दूसरे पेड़ को तलाशते हैं जिस पर अपनी मोटी चोंच की हथौड़ी चला कर बिल बना सकें। बिल बन जाता है तो फिर उसमें सफेद रंग के तीन अंडे दे देते हैं। ठठेरा माता-पिता दोनों ही मिल कर बच्चों के पालन-पोषण की जिम्मेदारी निभाते हैं। शहरों में इन पक्षियों के लिए एक नई परेशानी पैदा हो गई है। गांव-कस्बों में ये अपनी सहज आवाज में प्यार की बातें कर लेते थे लेकिन शहर में कर्कश कोलाहल के बीच, नक्कारखाने में इनकी तूती की आवाज भला प्रिया कैसे सुनेगी? हम मनुष्यों को इसकी चिंता नहीं है लेकिन सच यह है कि ठठेरा हो या कोयल या दूसरे पक्षी, शहरों में अब इन सभी को चीख-चीख कर प्यार के गीत गाने पड़ते हैं।

(नोट : यह लेख प्रसिद्ध विज्ञान कहानी लेखक देवेन मेवाड़ी जी की फेसबुक वॉल से साभार लिया गया है)

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posted on : April 20, 2020 5:03 am
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